एक बार एक लूँगती छी। वा घणी भूखी छी। वा खाणा कै ताणी अण्डि-उण्डी भटकरी छी। भटकताँ-भटकताँ वा एक बाग मै चलगी। बाग मै एक रूँखड़ा पै एक कागलो बैठ्यो छो। कागला की चूँच मै एक रोटी छी। लूँगती रोटी नै देखताँई ऊँका मूण्डा मै पाणी आग्यो। वा ऊँ रोटी नै खाबो चाई। लूँगती एक बच्यार लगार वा ऊँ कागला नै खहबा लाग्गी, “कागला भाया थारी बोली घणी चोखी लागै छै। थारी राग मै एक गीत सुणार म्हारै माळै थोड़ो सो उपकार कर दै”। कागलो खुद की बडाई सुणर “चणा का पेड पै चडग्यो” अर वो गीत गाबा लागग्यो। ज्यूँईं वो गीत गायो अर ऊँकी चूँच की रोटी तळै पड़गी। रोटी तळै पड़ताँई लूँगती ऊनै लेर जंगळ मै भाग्गी। कागलो मन ही मन घणो पसतायो।
सीख :- बळ सूँ बडी बुध्दि है छै।
- थाँकी राय द्यो