आवै नै जावै, मरै नहीं जनमै।
नहीं धूप, नहीं छाया, कबीर म्हानै एसा अणघड़ ध्याया॥(टेर)


धरती नहीं ज्यां जनम धारिया, नीर नहीं ज्यां न्हाया।
दाई-मांई का काम नहीं छा, ना कोई गोद खिलाया॥
कबीर म्हानै एसा अणघड़ ध्याया……॥(1)

बिन कपड़ा म्हानै भगवां रमाया, बिना गेरु रंग ल्याया।
बिना आड म्हानै कस्या लंगोटा, अणबै जोग चलाया॥
कबीर म्हानै एसा अणघड़ ध्याया……॥(2)

बिना अग्‍नी म्हानै धूण्यां घाली, बिना अग्‍नी तप ल्याया।
बिना भबूति भस्‍म रमाया, एसा ग्यान चलाया॥
कबीर म्हानै एसा अणघड़ ध्याया……॥(3)

पग बिना पंथ, नेण बिना निरखै, बिना कान सुण पाया।
खै गोरखजी सुणो कबीरा, बिना जीब गुण गाया॥
कबीर म्हानै एसा अनघड़ ध्याया……॥(4)